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ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का पता लगाने के लिए उपग्रह-आधारित तकनीक

भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल (IISER) ने अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र, हैदराबाद (CIMMYT), और मिशिगन विश्वविद्यालय (UOM) के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर एक उपग्रह-आधारित तकनीक को विकसित किया है। यह तकनीक भारत में जलाये जाने वाले कृषि अवशेषों से उत्पन्न होने वाली ग्रीनहाउस गैसों की जानकारी प्रदान करती है।

यह अध्ययन यह दिखाता है कि कैसे अंतरिक्ष-आधारित उपकरणों द्वारा जुटाया गया डेटा – प्रकाश और अन्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण – बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का सटीक अनुमान लगा सकते हैं।
हरित क्रांति की सफलता के कारण भारत ने खाद्य अनाज के उत्पादन में एक बेहतर वृद्धि देखी है। हालांकि, इस गहन खेती के उत्पादों से निकलने वाले फसल अवशेषों के प्रबंधन ने एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय चुनौती को पेश किया है। इन अवशेषों के प्रबंधन के प्रचलित तरीकों जिसमें किसानों द्वारा अगली फसलें बोने के लिए अपने खेतों को खाली करने के लिए फसल अवशेषों को जलाने (CRB) का कार्य किया जाता है। इसलिए इस विधि ने पर्यावरण से संबंधित गंभीर चिंताओं को पैदा किया है। भारत में हर साल 87.0 मिलियन टन फसल के अवशेषों को जलाया जाता है, जो उसके पड़ोसी देशों के पूरे कृषि अपशिष्ट उत्पादन से भी अधिक है।


इस मुद्दे की गंभीरता को समझाते हुए आईआईएसईआर भोपाल की सहायक प्रोफेसर और मैक्स प्लैंक पार्टनर ग्रुप की प्रमुख डॉ. धान्यलक्ष्मी के. पिल्लई ने कहा, “फसलों के अवशेष जलाने के घातक परिणाम होते हैं, क्योंकि इससे वायुमंडल में प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोत्तरी होती है, जिसका जलवायु, सार्वजनिक स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा पर गंभीर और प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वर्तमान कृषि पद्धतियाँ टिकाऊ नहीं हैं और इनको बदलना आवश्यक है इसलिए इसमें पर्याप्त तकनीक का इस्तेमाल करना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।”


इस शोध के नतीजों से यह पता चलता है कि पिछले दशक में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 75 प्रतिशत की आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है, जिसमें पंजाब और मध्य प्रदेश ग्रीनहाउस गैस के शीर्ष उत्सर्जक के रूप में सामने आये हैं। भारत के कुल कृषि अवशेषों के उत्सर्जन में 97 प्रतिशत योगदान चावल, गेहूं और मक्के की फसल जलाने से होता है, जिसमें चावल का योगदान 55 प्रतिशत है जो कि सर्वाधिक है।

इस क्षेत्र में आवश्यक नीतिगत पहलों पर प्रकाश डालते हुए आईआईएसईआर भोपाल के ग्रीनहाउस गैस मॉडलिंग और एप्लिकेशन ग्रुप के रिसर्च स्कॉलर मोनिश देशपांडे ने कहा, “भारत सरकार ने फसलों के अवशेषों को जलाने की प्रक्रिया को कम करने के लिए कई उपायों को लागू किया है, जिसमें किसानों को फसलों के अवशेषों न जलाने के लिए प्रोत्साहन और अवशेषों से जैव ईंधन के उत्पादन को बढ़ावा देना इत्यादि शामिल है। वर्ष 2014-2015 में प्रभावी रूप से नीति क्रियान्वयन के कारण फसलों के अवशेषों के जलने में प्रारंभिक रूप से कमी आई थी जबकि वर्ष 2016 में फिर से इसमें वृद्धि देखी गयी थी, जिसने अधिक प्रभावी और टिकाऊ नीतियों को अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया है।“

सीआरबी की चुनौतियों से निपटने के लिए देश भर में स्थानीय और समय-आधारित उत्सर्जन को जानना आवश्यक है। इस सहयोगात्मक अध्ययन में हमारे द्वारा देश भर में सीआरबी उत्सर्जन के पैमाने पर सटीक जानकारी प्रदान करने के लिए रिमोट सेंसिंग तकनीक उपयोग किया गया है।
इस सम्बन्ध में सीआईएमएमवाईटी के वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. विजेश वी. कृष्णा ने कहा, “इन उत्सर्जनों का विस्तृत मानचित्रण करके अवशेष जलाने को जलाने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए सफल नीतिगत हस्तक्षेपों को चिन्हित किया जा सकता है। संरक्षण कृषि, जिसमें कम जुताई और अवशेषों को सतह पर गीली घास के रूप में बनाए रखने का अध्ययन और प्रचार लंबे समय से सीआईएमएमवाईटी और उसके सहयोगियों द्वारा किया गया है। यह प्रक्रिया उपज के साथ समझौता किए बिना ही फसल अवशेषों को जलाने, उत्पादन की लागत और फसल की स्थापना के लिए आवश्यक समय को कम करने का एक प्रभावी तरीका प्रदान करती है।“

अवशेष जलाने के पिछले आकलन किसानों द्वारा जलाए जाने वाले फसलों के अवशेषों के अनुमानों पर निर्भर थे, जबकि इस अध्ययन में उपग्रह और डेटा के अन्य रूपों का उपयोग किया गया ताकि यह पता चल सके कि कौन सी फसलें उगाई जाती हैं, एवं कब उगाई जाती हैं, और 2011 से 2020 तक वास्तविक जिला-स्तरीय कृषि जलाए गए क्षेत्र और संबंधित उत्सर्जन पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभिन्न जिलों में इस प्रौद्योगिकी का उपयोग कैसे किया गया है।
इस शोध का नेतृत्व भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल (IISER Bhopal) के ग्रीनहाउस गैस मॉडलिंग और एप्लिकेशन्स ग्रुप के शोधार्थी मोनिश देशपांडे ने किया है, वहीं इस शोध में आईआईएसईआर भोपाल के मैक्स प्लांक पार्टनर ग्रुप की सहायक प्रोफेसर और हेड डॉ. धान्यलक्ष्मी के. पिल्लई ने मार्गदर्शक की भूमिका निभाई है।

इस अध्ययन को प्रतिष्ठित पीयर-समीक्षित पत्रिका “साइंस ऑफ़ टोटल इनवॉयरर्मेंट” में प्रकाशित किया गया है। इस पेपर को तैयार करने में मोनिश विजय देशपांडे, नीतीश कुमार, डॉ. धान्यलक्ष्मी के. पिल्लई, विजेश वी. कृष्णा और मीहा जैन की विशेष भूमिका रही है। यह सभी शोधकर्ता आईआईएसईआर भोपाल, अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र (हैदराबाद) एवं मिशिगन विश्वविद्यालय से संबंधित हैं। इस शोध पेपर को इस लिंक के माध्यम से देखा जा सकता है: https://doi.org/10.1016/j.scitotenv.2023.166944

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