अनोखी है मधुमक्खियों की भूमिगत दुनिया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मधुमक्खियों की कई प्रजातियां अपना अधिकांश जीवन ज़मीन के नीचे बिताती हैं जहां वे छत्ते बनाती हैं। हाल ही में उन्नत एक्स-रे तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने भूमिगत मधुमक्खियों की गुप्त दुनिया को खोज निकाला है। अब वे इन छत्तों के निर्माण और मिट्टी की सेहत पर इनके प्रभाव को समझने का प्रयास कर रहे हैं।
लगभग 85 प्रतिशत मधुमक्खी प्रजातियां अपने छत्ते ज़मीन के नीचे बनाती हैं लेकिन इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि ये जटिल संरचनाएं कैसे बनाई जाती हैं। इनके अध्ययन के लिए छत्तों को खोदना पड़ता है। एक तरीका यह है कि छत्ते में टैल्कम पाउडर डालकर खुदाई की जाए ताकि छत्ते की दीवारें अलग चमकें। फिर मिट्टी की एक-एक परत हटाकर छत्ते का चित्र बनाते जाना होता है। एक अन्य तरीका यह रहा है कि मधुमक्खी को प्रयोगशाला में पालकर उसे भूमिगत छत्ता बनाने दिया जाए। लेकिन इन तकनीकों से घोंसलों के त्रि-आयामी आकार की केवल एक सीमित तस्वीर ही बन पाती है।
इनकी त्रि-आयामी संरचना को समझने के लिए स्वीडिश युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज़ के मृदा वैज्ञानिक थॉमस केलर ने अस्पतालों में इस्तेमाल की जाने वाली सीटी स्कैनिंग तकनीक का उपयोग किया। इस तरह मधुमक्खियों की दो मुख्य प्रजातियों, खनिक मधुमक्खी (कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस) और स्वेद मधुमक्खी (लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम), के छत्तों का खुलासा किया गया। कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस एकाकी जीव है; हरेक मादा अपना घोंसला अकेले बनाती है, खुद ही पराग इकट्ठा करती है और छत्ता छोड़ने से पहले अंडे देती है। दूसरी ओर, लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम सामुदायिक रूप से प्रजनन करती है, कई पीढ़ियां साथ रहती हैं और यह समूह छत्ते को निरंतर विस्तार देता रहता है।
इन मधुमक्खियों का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने स्विट्जरलैंड के घास के मैदानों की विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का चयन किया। उन्होंने ज़मीन के भीतर 20 सेंटीमीटर चौड़े प्लास्टिक के पाइप डाले जहां मधुमक्खियां सक्रिय थीं और एक महीने बाद लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम इन पाइपों को बाहर निकालकर सीटी स्कैनर से छत्तों को स्कैन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस का छत्ता सरल लंबवत था, जबकि लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम का छत्ता कहीं अधिक जटिल था।
मधुमक्खियों की गतिविधियों का मिट्टी की संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव दिखा। छत्तों में इल्लियों के लिए बनाए प्रकोष्ठ मिट्टी में उपस्थित अन्य छिद्रों (जैसे जड़ों या कृमियों द्वारा बनाए गए छिद्रों) की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ थे क्योंकि इन्हें पत्तियों और पंखुड़ियों का अस्तर लगाकर वॉटरप्रूफ किया गया था। एक सुराख तो 16 महीने के अध्ययन में महफूज़ रहा।
हालांकि इस प्रकार के अध्ययन के लिए बड़े सीटी स्कैनर का व्यापक स्तर पर उपयोग करना तो संभव नहीं है लेकिन आज की उन्नत तकनीकों की मदद से शोधकर्ता यह तो पता लगा ही सकते हैं कि क्या मधुमक्खियां अपने भूमिगत छत्ते की डिज़ाइन को मिट्टी की किस्म और जलवायु के अनुसार ढालती हैं। इसके अतिरिक्त, वे यह भी पता लगा सकते हैं कि क्या कुछ परिस्थितियां उनके प्रजनन में मददगार होती हैं। इस आधार पर इनके संरक्षण के प्रयास किए जा सकते हैं।
फिलहाल शोधकर्ताओं का उद्देश्य यह पता लगाना है कि खेतों की जुताई जैसी प्रथाएं मधुमक्खियों को कैसे प्रभावित करती हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन नीति निर्माताओं को जंगली मधुमक्खियों की आबादी को बढ़ावा देने सम्बंधी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)