fbpx
News Uncategorized

कोरल भी खेती करते हैं शैवाल की

बीगल नौका पर सवार होकर दक्षिणी प्रशांत महासागर से गुज़रते हुए डारविन इस सवाल से परेशान रहे थे: बंजर समुद्र में कोरल (मूंगा) फलते-फूलते कैसे हैं? इसे डारविन की गुत्थी भी कहा जाता है। और अब नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन ने हमें इसके जवाब के नज़दीक पहुंचा दिया है।

शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि कोरल पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति उन पर उगने वाली शैवाल को खाकर करते हैं। यह तो काफी समय से पता रहा है कि कोरल का उन एक-कोशिकीय शैवालों के साथ परस्पर लाभ का सम्बंध रहता है जो उन पर पनपते हैं और उन्हें अपना ‘घर’ मानते हैं। कोरल की पनाह में शैवाल समुद्र के कठिन वातावरण से सुरक्षा पाते हैं और कोरल के अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग भोजन के रूप में करते हैं। बदले में ये शैवाल सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को भोज्य पदार्थों में बदलते हैं जिनका उपयोग वे स्वयं तथा अपने मेज़बान कोरल के पोषण हेतु करते हैं। इसके अलावा कोरल बहकर आने वाले जंतु-प्लवकों का भक्षण भी करते हैं।

लेकिन दुनिया भर में फैली विशाल कोरल चट्टानों का काम इतने भर से नहीं चलता। और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यहां नाइट्रोजन और फॉस्फोरस जैसे पोषक पदार्थों का अभाव होता है।

अलबत्ता, आसपास रहने वाले जीव-जंतु काफी मात्रा में अकार्बनिक नाइट्रोजन व फॉस्फोरस का उत्सर्जन करते हैं, जिसका उपभोग कोरल पर बसे शैवाल कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। तो साउथेम्पटन विश्वविद्यालय के यॉर्ग वाइडेलमैन को विचार आया कि क्या शैवाल ये पोषक तत्व अपने कोरल मेज़बानों को प्रदान करते हैं।

जानने के लिए वाइडेलमैन की टीम ने कोरल (शैवाल सहित) नमूनों को कुछ टंकियों में रखा जिनमें कोई भोजन नहीं था। इनमें से आधी टंकियों में उन्होंने ऐसे अकार्बनिक पोषक तत्व डाले जिनका उपयोग कोरल पर बसने वाली शैवाल ही कर सकती थी। पोषक तत्वों से रहित टंकियों में कोरल की वृद्धि रुक गई और 50 दिनों के अंदर उनके लगभग आधे शैवाल साथी गुम हो गए। लेकिन जिन टंकियों में शैवाल को भोजन मिला था उनमें कोरल की वृद्धि उम्दा रही।

यह तो पहले से पता था कि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कोरल को ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं लेकिन उक्त परिणामों से लगता है कि वे अकार्बनिक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को कोरल के लिए उपयुक्त रूप में बदल देते हैं। लेकिन वे ये पोषक तत्व कोरल को कैसे हस्तांतरित करते हैं, यह एक रहस्य ही बना रहा था।

विचार यह आया कि शायद कोरल इन शैवाल का भक्षण करते हैं। इसे समझने के लिए टीम ने यह हिसाब लगाया कि पोषक तत्वों की दी गई मात्रा से कोरलवासी शैवाल की आबादी में कितनी वृद्धि अपेक्षित है। फिर इसकी तुलना टंकियों में शैवाल कोशिकाओं की वास्तविक संख्या से की गई। इन कोशिकाओं की संख्या अपेक्षा से काफी कम थी। और तो और, जो कोशिकाएं नदारद थीं, उनके जितने नाइट्रोजन और फॉस्फोरस लगते, उतने ही कोरल को उतना बड़ा करने के लिए ज़रूरी थे। यानी कोरल्स शैवाल का शिकार कर रहे थे।

यह तो हुई टंकियों की बात। इस परिघटना को प्रकृति में देखने के लिए टीम ने हिंद महासागर के चागोस द्वीपसमूह में कोरल चट्टानों की वृद्धि का अवलोकन किया। यहां के कुछ द्वीपों पर समुद्री पक्षियों का घनत्व काफी अधिक है। और पक्षियों की बीट में ऐसे अकार्बनिक पोषक पदार्थ होते हैं जिनका उपयोग शैवाल सीधे-सीधे कर सकते हैं लेकिन कोरल नहीं कर सकते। तीन वर्षों की अवधि में टीम ने देखा कि पक्षियों के अधिक घनत्व वाले द्वीपों पर कोरल की वृद्धि कम घनत्व वाले द्वीपों की अपेक्षा दुगनी थी। इसके अलावा, पक्षियों के उच्च घनत्व वाले द्वीपों के तटवर्ती कोरल में नाइट्रोजन का एक ऐसा रूप भी पुन: दिखने लगा था जो पक्षियों की बीट में तो होता है लेकिन जंतु-प्लवकों में नहीं। अर्थात यह ज़रूर शैवालों के ज़रिए कोरल को मिला होगा।

पूरे मामले की सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस अध्ययन में एक सजीवों के बीच के जटिल जैविक सम्बंध की खोज करने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों बीगल नौका पर सवार होकर दक्षिणी प्रशांत महासागर से गुज़रते हुए डारविन इस सवाल से परेशान रहे थे: बंजर समुद्र में कोरल (मूंगा) फलते-फूलते कैसे हैं? इसे डारविन की गुत्थी भी कहा जाता है। और अब नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन ने हमें इसके जवाब के नज़दीक पहुंचा दिया है।

शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि कोरल पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति उन पर उगने वाली शैवाल को खाकर करते हैं। यह तो काफी समय से पता रहा है कि कोरल का उन एक-कोशिकीय शैवालों के साथ परस्पर लाभ का सम्बंध रहता है जो उन पर पनपते हैं और उन्हें अपना ‘घर’ मानते हैं। कोरल की पनाह में शैवाल समुद्र के कठिन वातावरण से सुरक्षा पाते हैं और कोरल के अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग भोजन के रूप में करते हैं। बदले में ये शैवाल सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को भोज्य पदार्थों में बदलते हैं जिनका उपयोग वे स्वयं तथा अपने मेज़बान कोरल के पोषण हेतु करते हैं। इसके अलावा कोरल बहकर आने वाले जंतु-प्लवकों का भक्षण भी करते हैं।

लेकिन दुनिया भर में फैली विशाल कोरल चट्टानों का काम इतने भर से नहीं चलता। और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यहां नाइट्रोजन और फॉस्फोरस जैसे पोषक पदार्थों का अभाव होता है।

अलबत्ता, आसपास रहने वाले जीव-जंतु काफी मात्रा में अकार्बनिक नाइट्रोजन व फॉस्फोरस का उत्सर्जन करते हैं, जिसका उपभोग कोरल पर बसे शैवाल कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। तो साउथेम्पटन विश्वविद्यालय के यॉर्ग वाइडेलमैन को विचार आया कि क्या शैवाल ये पोषक तत्व अपने कोरल मेज़बानों को प्रदान करते हैं।

जानने के लिए वाइडेलमैन की टीम ने कोरल (शैवाल सहित) नमूनों को कुछ टंकियों में रखा जिनमें कोई भोजन नहीं था। इनमें से आधी टंकियों में उन्होंने ऐसे अकार्बनिक पोषक तत्व डाले जिनका उपयोग कोरल पर बसने वाली शैवाल ही कर सकती थी। पोषक तत्वों से रहित टंकियों में कोरल की वृद्धि रुक गई और 50 दिनों के अंदर उनके लगभग आधे शैवाल साथी गुम हो गए। लेकिन जिन टंकियों में शैवाल को भोजन मिला था उनमें कोरल की वृद्धि उम्दा रही।

यह तो पहले से पता था कि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कोरल को ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं लेकिन उक्त परिणामों से लगता है कि वे अकार्बनिक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को कोरल के लिए उपयुक्त रूप में बदल देते हैं। लेकिन वे ये पोषक तत्व कोरल को कैसे हस्तांतरित करते हैं, यह एक रहस्य ही बना रहा था।

विचार यह आया कि शायद कोरल इन शैवाल का भक्षण करते हैं। इसे समझने के लिए टीम ने यह हिसाब लगाया कि पोषक तत्वों की दी गई मात्रा से कोरलवासी शैवाल की आबादी में कितनी वृद्धि अपेक्षित है। फिर इसकी तुलना टंकियों में शैवाल कोशिकाओं की वास्तविक संख्या से की गई। इन कोशिकाओं की संख्या अपेक्षा से काफी कम थी। और तो और, जो कोशिकाएं नदारद थीं, उनके जितने नाइट्रोजन और फॉस्फोरस लगते, उतने ही कोरल को उतना बड़ा करने के लिए ज़रूरी थे। यानी कोरल्स शैवाल का शिकार कर रहे थे।

यह तो हुई टंकियों की बात। इस परिघटना को प्रकृति में देखने के लिए टीम ने हिंद महासागर के चागोस द्वीपसमूह में कोरल चट्टानों की वृद्धि का अवलोकन किया। यहां के कुछ द्वीपों पर समुद्री पक्षियों का घनत्व काफी अधिक है। और पक्षियों की बीट में ऐसे अकार्बनिक पोषक पदार्थ होते हैं जिनका उपयोग शैवाल सीधे-सीधे कर सकते हैं लेकिन कोरल नहीं कर सकते। तीन वर्षों की अवधि में टीम ने देखा कि पक्षियों के अधिक घनत्व वाले द्वीपों पर कोरल की वृद्धि कम घनत्व वाले द्वीपों की अपेक्षा दुगनी थी। इसके अलावा, पक्षियों के उच्च घनत्व वाले द्वीपों के तटवर्ती कोरल में नाइट्रोजन का एक ऐसा रूप भी पुन: दिखने लगा था जो पक्षियों की बीट में तो होता है लेकिन जंतु-प्लवकों में नहीं। अर्थात यह ज़रूर शैवालों के ज़रिए कोरल को मिला होगा।

पूरे मामले की सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस अध्ययन में एक सजीवों के बीच के जटिल जैविक सम्बंध की खोज करने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों और प्रकृति में प्रत्यक्ष अवलोकनों का सुंदर मिला-जुला इस्तेमाल किया है। (स्रोत फीचर्स)

Leave a Comment

Your email address will not be published.

You may also like